लखनऊ और फैज़: अतुल तिवारी

by Vikram

“हज़रात!

ये जलसा हमारी अदब की तारीख़ में एक यादगार वाक़या है।  हमारे सम्मेलनों,अंजुमनों में – अब तक, आम तौर पर – ज़ुबान और उसकी अशात अत से बहस की जाती रही है। यहाँ तक कि उर्दू और हिंदी का इब्तेदाई लिटरेचर – जो मौजूद है – उसका मंशा ख़यालात और जज़्बात पर असर डालना नहीं, बल्कि बाज़ ज़ुबान की तामीर था।…लेकिन ज़ुबान ज़रिया है मंजिल नहीं ।

…अदब की बहुत सी तारीफें की गयीं हैं।  लेकिन मेरे ख़याल से इसकी बेहतरीन तारीफ़ “तनक़ीद-ए-हयात” है – चाहे वो मकालों की शक्ल में हो। या अफसानों की। या शेर की। इससे हमारी हयात का तब्सिरा कहना चाहिए।

हम जिस दौर से गुज़रें हैं उसमें…लिटरेचर का ज़िन्दगी से कोई तालुक़ है- इसमें कलाम हि न था। इश्क़ का मियार नफ्स-परवरी था और हुस्न कादीदा-ज़ेबी। इन्हीं जिंसी जज़्बात के इज़्हार में शोरा अपनी जिद्दत औरजीलानी के मोजिज़े दिखाते थे…और आज भी वो शायरी किस क़दर मकबूल है, ये
आप और हम खूब जानते हैं।

क्या वो अदब – जिसमें दुनिया और दुनिया की मुश्किलात से किनाराकश होना ही – ज़िंदगी का माहिस्ल समझा गया हो, हमारी ज़ेहनी और जज़्बाती ज़रूरतों को पूरा कर सकता है? जिंसियात इंसान का एक जुज़्व है, और जिस अदब का बेशतर हिस्सा – इसी से मुताल्लिक हो – वो उस कौम और ज़माने के लिए फ़ख्र का बाईस  नहीं हो सकता।

जो हम में सच्चा इरादा और मुश्किलात पर फ़तेह पाने के लिए सच्चा इस्तक्लाल न पैदा करे – वो अदब आज हमारे लिए बेकार है।

”तरक्की पसंद मुसन्नफीन का उन्वाँ मेरे ख़याल से नाक़िस है। अदब या आर्टिस्ट, तबन और ख्स्ल्तन तरक्की पसंद होता है। अगर ये उस की फितरत न होती तो शायद वो अदीब न होता।

अब हमें हुस्न का मियार तब्दील करना होगा। फ़ाक़ा और उरियानी में भी हुस्न का वजूद हो सकता है – इसे अदब तस्लीम नहीं करता। हुस्न हसीं औरत में है – उस बच्चे वाली ग़रीब बे-हुस्न औरत में नहीं, जो बच्चे को खेत की मेड़ पर सुलाए, पसीना बहा रही है। अदब ने तय कर लिया है कि रंगे होठों और रुखसारों और अबरूओं में फिलवाकई हुस्न का वास है – उलझे हुए बालों, पपड़ियाँ पड़े होठों और कुम्भ्लाये हुए रुखसारों में हुस्न का गुज़र कहाँ? – लेकिन ये उसकी तंग-नज़री का कुसूर है।

जब हम इस माशरत को बर्दाशत न कर सकेंगे कि हज़ारों इंसान एक जाबिर की ग़ुलामी करें – तब हमारी ख़ुद्दार इंसानियत इस सरमायेदारी, अस्करियत और मलूकियत के खिलाफ अल्म-ए-बगावत बुलंद करेगी। तभी हम सिर्फ सफ-ए-काग़ज़ पर तखलीक करके खामोश न हो जायेंगे।

अदीब का मिशन महज़ निशात और महफ़िल आराई और तफरीह नहीं है। उस का मर्तबा इतना न गिराइए। वो वतानियत और सियासियत के पीछे चलने वाली हक़ीक़त नहीं – बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली हक़ीक़त है।

जब तक अदब का काम महज़ तफरीह का सामान पैदा करना, महज़ लोरियां गा कर सुलाना, महज़ आंसू बहा कर ग़म ग़लत करना था – उस वक़्त तक अदब के नए अमल की ज़रुरत न थी। वो दीवाना था जिसका ग़म दुसरे खाते थे। मगर हम अदब को महज़ तफरीह और तय्युश की चीज़ नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही अदब खरा उतरेगा जिस में तफ़क्कुर हो, आज़ादी का जज़्बा हो, हुस्न का जौहर हो, तामीर की रूह हो, ज़िंदगी की हक़ीक़तों की रौशनी हो – जो  हम में हरकत और हंगामा और बेचैनी पैदा करे – सुलाए नहीं – क्यूंकि अब और ज्यादा सोना मौत की अलामत होगी।”

दोस्तों, ऑफ़कोर्स ये मेरे अलफ़ाज़ नहीं हैं, न मेरा अंदाज़…काश…!

जो मैंने यहाँ पढ़ा यह, वो गुरबाणी थी, वो कलमा, वो गायत्रीमंत्र था – जो १० अप्रैल १९३६ के दिन, शहर लखनऊ में, धनपत राय नाम के आदमी ने – फैज़ के कानों में फूँका था। पी.डब्ल्यू.ऐ की पेहली कांफेरेंस में मुंशी प्रेमचंद का ये इनौगुएरल एड्रेस, हिन्दुस्तान के अदब की ही नहीं, आर्ट्स की, थियेटर की, फिल्मों की और पोलिटिक्स की भी तस्वीर बदलने वाला क्षण/लम्हा साबित होने वाला था। और ये महज़ इत्तेफाक़ न था कि फैज़ इतनी दूर – पंजाब – से आके उस दिन लखनऊ में मौजूद थे। अभी अभी फैज़ सिर्फ पच्चीस के हुए थे, – जवान थे, जोशीले थे, इम्प्रेस्सिव थे, और इम्प्रेशनेब्ल भी। और लखनऊ ने उनपर जो छाप छोड़ी, जो रिश्ता उनसे बनाया – वो एक लाइफ लॉन्ग रिलेशनशिप बनने जा रहा था।

असल में लखनऊ से उनके गहरे रिश्ते की बुनियाद उसी दिन पड़ गयी थी जिस दिन डॉ. रशीद जहाँ, अमृतसर छोड़ के लखनऊ चली आयीं थीं। डॉ. रशीद जहाँ के नाम और शक्सियत से आप में से कौन वाकिफ़ नहीं है। अफ़साना-निगर, नाटक-कार, डॉक्टर और सबसे बढ़ कर एक कमिटेड कोमरेड। १९३२ में शाया हुई ‘अंगारे’ की तपिश पूरे हिन्दुस्तान में पहुंच चुकी थी। और १९३३ में जब वो किताब अंग्रेजों ने बैन कर दी, तो डॉ. रशीद जहाँ की प्रसिद्धि उन जगहों, लोगों, और हलाकों तक भी पहुँच गयी जो उन्हें अब तक नहीं जानते थे। उनके शौहर – दानिशवर-विद्वान- कम्युनिस्ट कॉमरेड. मह्मूदुज्ज़फर ज़फ़र जब लाहोर के एम्.ऐ.ओ कॉलेज में वाइस प्रिंसिपल हुआ करते थे, उन्हीं दिनों जवान फैज़ भी, अंग्रेज़ी- अरबी में एम्.ऐ करने के बाद वहीं लेक्चरार मुक़र्रर हुए थे। डॉ. रशीद जहाँ और कॉमरेड मह्मूदुज्ज़फर ने ही सबसे पहले फैज़ को तर्रक्कीपसंद ख्यालों, आन्दोलन और मर्क्सिस्म से भी जोड़ा था।

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