Mouzu-e-Sukhan by Faiz Ahmead Faiz

by Vikram

मौज़ू-ए-सुखन

गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम
धुल के निकलेगी अभी चश्म-ए-माहताब से रात
और मुश्ताक निगाहों की सुनी जाएगी
और उन हाथों से मस होंगे ये तरसे हुए हाथ

उन का आंचल है कि रुखसार कि पैराहन है
कुछ तो है कि जिससे हुई जाती है चिलमन रंगीन
जाने उस ज़ुल्फ़ कि मौहूम घनी छावं में
टिमिटमाता है वो आवेज़ा अभी तक के नही

आज  फिर  हुस्न-ए-दिलारा की वो ही धज होगी
वो ही ख्वाबीदा सी आंखें वो ही काज़ल की लकीर
रंग-ए-रुखसार पे हल्का सा वो गाज़े का गुबार
सन्द्ली हाथों पे धुंधली सी हिना  की तहरीर

अपने अफ्कार के अशआर कि दुनिया है यही
जान-ए-मज़मून है ये शाहिद -ए-माना है यही
अपना मौज़ू-ए-सुखन इन  के सिवा और नही
तब्बा शायर का वतन इन कॆ सिवा और नही

ये खूं की महक है के लबे यार की खुशबू

किस राह की जानिब से सबा आती है देखो
गुलशन मे बहार आई  के ज़िन्दा  हुआ आबाद
किस  संग से नगमों की सदा आती है देखो

– फैज़ अहमद फैज़
Image Source: Wikipedia

Abida’s rendition

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