फैज़ अहमद फैज़ के शेर

हमने सब शेर में संवारे थे
हमसे जितने सुखन तुम्हारे थे (सुखनः बातचीत)

मरने के बाद भी मेरी आंखें खुली रहीं,
आदत जो पड़ गई थी तेरे इंतजार की

वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे, जो इश्क को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे, हम जीते जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क किया, कुछ काम किया (मशरूफः व्यस्त)

दिल नाउम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लंबी है गम की शाम, मगर शाम ही तो है।

जिंदगी क्या किसी मुफलिस की कबा है,
जिसमें हर घड़ी दर्द के पैबन्द लगे जाते हैं।
(मुफलिसः गरीब, कबाः लंबा चोगा)

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